श्योपुर में बिना केमिकल किसान उगा रहे सब्जियां-फल:चंबल नदी किनारे अनोखी खेती से 20 हजार की लागत से सवा लाख की कमाई

मध्य प्रदेश और राजस्थान की सीमा पर बहने वाली चंबल नदी के किनारे किसानों ने एक अनूठी पहल की है। श्योपुर के सामरसा और पाली रामेश्वर क्षेत्र के किसान पिछले 10 वर्षों से नदी के किनारों पर जैविक खेती कर रहे हैं। यह खेती पूरी तरह से प्राकृतिक है, जिसमें किसी भी प्रकार के रासायनिक खाद या कीटनाशकों का प्रयोग नहीं किया जाता। नदी के जल स्तर में कमी आने पर, किसान आधे से एक किलोमीटर लंबे घाट और किनारों पर खेती करते हैं। मौसम के अनुसार यहां कद्दू, ककड़ी, खरबूजा, तरबूज और लौकी जैसी फसलें उगाई जाती हैं। सर्दियों में कद्दू की खेती होती है, जबकि गर्मियों में अलग-अलग फल और सब्जियां उगाई जाती हैं। करीब 50 बीघा क्षेत्र में फैली इस खेती से उत्पादित फसलें श्योपुर से लेकर राजस्थान के खंडार और सवाई माधोपुर तक पहुंचती हैं। गौरतलब है कि यह खेती सरकारी नियमों के विपरीत है, लेकिन किसान नदी और जलीय जीवों की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखते हैं। चंबल नदी के निकट होने के कारण सिंचाई के लिए पानी की कोई कमी नहीं होती। कम लागत और प्राकृतिक तरीकों से की जा रही यह खेती किसानों के लिए अच्छी आमदनी का स्रोत बन गई है, जहां केवल 20 हजार की लागत से सवा लाख रुपए तक की कमाई संभव है। खर्चा कम, पैदावार अच्छी चंबल नदी किनारे की यह जमीन बेहद उपजाऊ है। इसलिए यहां खेती पर खर्चा कम और किसान की आय ज्यादा होती है। एक बीघा में फसल करने पर करीब 20 हजार का खर्च होता है। यहां पैदा होने वाली ककड़ी, खरबूजा, तरबूज और कद्दू 12 रुपए किलो के भाव में आसानी से बिकता है। किसानों का दावा है कि एक बीघा में एक से डेढ़ लाख रुपए तक की पैदावार हो जाती है किसान विष्णु केवट रामेश्वर घाट मानपुर ने कहा सर्दी में कद्दू की खेती करते हैं, गर्मी के समय ककड़ी तरबूज सहित अन्य सब्जियों की खेती करते हैं, जिससे काफी मुनाफा हो जाता है। अभी कद्दू की खेती चल रही है, जिसको हम गाड़ी लोड कर के कोटा आगरा श्योपुर ग्वालियर की मंडी में भेज रहे हैं। चंबल घड़ियाल अभ्यारण श्योपुर के अधीक्षक योगेंद्र कुमार पारदे बोले कि किसानों की ओर से जो खेती की जा रही हैं, उससे, जलीय जीवों को अंडे देने में परेशानी आती हैं, क्योंकि घाटों के पास घड़ियाल अंडे देते हैं। जगह के अभाव के कारण घड़ियाल के अंडे संरक्षित नहीं हो पा रहैं।

श्योपुर में बिना केमिकल किसान उगा रहे सब्जियां-फल:चंबल नदी किनारे अनोखी खेती से 20 हजार की लागत से सवा लाख की कमाई
मध्य प्रदेश और राजस्थान की सीमा पर बहने वाली चंबल नदी के किनारे किसानों ने एक अनूठी पहल की है। श्योपुर के सामरसा और पाली रामेश्वर क्षेत्र के किसान पिछले 10 वर्षों से नदी के किनारों पर जैविक खेती कर रहे हैं। यह खेती पूरी तरह से प्राकृतिक है, जिसमें किसी भी प्रकार के रासायनिक खाद या कीटनाशकों का प्रयोग नहीं किया जाता। नदी के जल स्तर में कमी आने पर, किसान आधे से एक किलोमीटर लंबे घाट और किनारों पर खेती करते हैं। मौसम के अनुसार यहां कद्दू, ककड़ी, खरबूजा, तरबूज और लौकी जैसी फसलें उगाई जाती हैं। सर्दियों में कद्दू की खेती होती है, जबकि गर्मियों में अलग-अलग फल और सब्जियां उगाई जाती हैं। करीब 50 बीघा क्षेत्र में फैली इस खेती से उत्पादित फसलें श्योपुर से लेकर राजस्थान के खंडार और सवाई माधोपुर तक पहुंचती हैं। गौरतलब है कि यह खेती सरकारी नियमों के विपरीत है, लेकिन किसान नदी और जलीय जीवों की सुरक्षा का विशेष ध्यान रखते हैं। चंबल नदी के निकट होने के कारण सिंचाई के लिए पानी की कोई कमी नहीं होती। कम लागत और प्राकृतिक तरीकों से की जा रही यह खेती किसानों के लिए अच्छी आमदनी का स्रोत बन गई है, जहां केवल 20 हजार की लागत से सवा लाख रुपए तक की कमाई संभव है। खर्चा कम, पैदावार अच्छी चंबल नदी किनारे की यह जमीन बेहद उपजाऊ है। इसलिए यहां खेती पर खर्चा कम और किसान की आय ज्यादा होती है। एक बीघा में फसल करने पर करीब 20 हजार का खर्च होता है। यहां पैदा होने वाली ककड़ी, खरबूजा, तरबूज और कद्दू 12 रुपए किलो के भाव में आसानी से बिकता है। किसानों का दावा है कि एक बीघा में एक से डेढ़ लाख रुपए तक की पैदावार हो जाती है किसान विष्णु केवट रामेश्वर घाट मानपुर ने कहा सर्दी में कद्दू की खेती करते हैं, गर्मी के समय ककड़ी तरबूज सहित अन्य सब्जियों की खेती करते हैं, जिससे काफी मुनाफा हो जाता है। अभी कद्दू की खेती चल रही है, जिसको हम गाड़ी लोड कर के कोटा आगरा श्योपुर ग्वालियर की मंडी में भेज रहे हैं। चंबल घड़ियाल अभ्यारण श्योपुर के अधीक्षक योगेंद्र कुमार पारदे बोले कि किसानों की ओर से जो खेती की जा रही हैं, उससे, जलीय जीवों को अंडे देने में परेशानी आती हैं, क्योंकि घाटों के पास घड़ियाल अंडे देते हैं। जगह के अभाव के कारण घड़ियाल के अंडे संरक्षित नहीं हो पा रहैं।