उज्जैन के डाबरी गांव में दिवाली पर अनोखी परंपरा:गांव में कैद रहेगा गुर्जर समाज,तीन दिन नहीं देखेगा दूसरों का मुंह; बाहर नहीं जाएगा गांव का दूध
उज्जैन जिले के नागदा क्षेत्र के ग्राम डाबरी में दिवाली का त्योहार एक अनोखे ढंग से मनाया जाता है। यहां के गुर्जर समाज के करीब 250 परिवार धनतेरस से लेकर दिवाली (तीन दिन) तक गांव से बाहर नहीं जाते और किसी बाहरी व्यक्ति का चेहरा तक नहीं देखते। यहां तक की दूध भी नहीं बेचते हैं। यह परंपरा समाज में सदियों से चली आ रही है। डाबरी गांव के सरपंच नीलेश गुर्जर के अनुसार यह परंपरा सिर्फ डाबरी में ही नहीं, बल्कि मंदसौर, नीमच और रतलाम जिलों से सटे गुर्जर बहुल गांवों में भी निभाई जाती है। इन तीन दिनों के दौरान गांव में निकाला गया दूध भी बाहर नहीं बेचा जाता, बल्कि गांव के भीतर ही मुफ्त में बांट दिया जाता है। दिवाली पर करते हैं पूर्वजों का श्राद्ध सबसे खास बात यह है कि दिवाली पर जहां देशभर में माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है, वहीं डाबरी में लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण और पूजन करते हैं। उनका मानना है कि पूर्वजों की पूजा से ही परिवार में सुख, समृद्धि और वंशवृद्धि होती है। गांव वाले इस परंपरा को आज भी बड़े आस्था और अनुशासन के साथ निभाते हैं। गुर्जर बहुल 35 गांवों में परंपरा मध्य प्रदेश के 35 गुर्जर बहुल गांव में ये परंपरा निभाई जा रही है। जिसमें डाबरी सहित सिमरोल, बरखेड़ी और रतलाम, नीमच, मंदसौर के गांव भी शामिल हैं। दिवाली की रात गांव के सभी 1000 से अधिक लोग अपने पितृ के तर्पण और मोक्ष की कामना के लिए गांव में एकत्रित होंगे। यहां करीब एक घंटे पूजन के बाद ही गांव में दिवाली मनाई जाएगी। ऐसे होता है पूजन श्राद्ध से पहले गुर्जर परिवार के प्रत्येक घर से थाली आती है। जिसमें खीर और चूरमा होता है। जिसका भोग लगाया जाता है। इसके बाद परिवार के लोग एक-दूसरे को प्रसाद के रूप में भोजन कराते हैं। दिवाली से पहले गुर्जर समाज के सभी पुरुष एक साथ मिलकर घास और पीपल की पत्तियों से लंबी बेल (रस्सी) बनाते हैं। खीर और पकवान बनाकर बेल पकड़कर अपने पूर्वजों को याद करते हुए पानी में विसर्जित करते हैं। बेल के समान वंश वृद्धि की कामना के लिए यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी निभाई जा रही है।
उज्जैन जिले के नागदा क्षेत्र के ग्राम डाबरी में दिवाली का त्योहार एक अनोखे ढंग से मनाया जाता है। यहां के गुर्जर समाज के करीब 250 परिवार धनतेरस से लेकर दिवाली (तीन दिन) तक गांव से बाहर नहीं जाते और किसी बाहरी व्यक्ति का चेहरा तक नहीं देखते। यहां तक की दूध भी नहीं बेचते हैं। यह परंपरा समाज में सदियों से चली आ रही है। डाबरी गांव के सरपंच नीलेश गुर्जर के अनुसार यह परंपरा सिर्फ डाबरी में ही नहीं, बल्कि मंदसौर, नीमच और रतलाम जिलों से सटे गुर्जर बहुल गांवों में भी निभाई जाती है। इन तीन दिनों के दौरान गांव में निकाला गया दूध भी बाहर नहीं बेचा जाता, बल्कि गांव के भीतर ही मुफ्त में बांट दिया जाता है। दिवाली पर करते हैं पूर्वजों का श्राद्ध सबसे खास बात यह है कि दिवाली पर जहां देशभर में माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है, वहीं डाबरी में लोग अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण और पूजन करते हैं। उनका मानना है कि पूर्वजों की पूजा से ही परिवार में सुख, समृद्धि और वंशवृद्धि होती है। गांव वाले इस परंपरा को आज भी बड़े आस्था और अनुशासन के साथ निभाते हैं। गुर्जर बहुल 35 गांवों में परंपरा मध्य प्रदेश के 35 गुर्जर बहुल गांव में ये परंपरा निभाई जा रही है। जिसमें डाबरी सहित सिमरोल, बरखेड़ी और रतलाम, नीमच, मंदसौर के गांव भी शामिल हैं। दिवाली की रात गांव के सभी 1000 से अधिक लोग अपने पितृ के तर्पण और मोक्ष की कामना के लिए गांव में एकत्रित होंगे। यहां करीब एक घंटे पूजन के बाद ही गांव में दिवाली मनाई जाएगी। ऐसे होता है पूजन श्राद्ध से पहले गुर्जर परिवार के प्रत्येक घर से थाली आती है। जिसमें खीर और चूरमा होता है। जिसका भोग लगाया जाता है। इसके बाद परिवार के लोग एक-दूसरे को प्रसाद के रूप में भोजन कराते हैं। दिवाली से पहले गुर्जर समाज के सभी पुरुष एक साथ मिलकर घास और पीपल की पत्तियों से लंबी बेल (रस्सी) बनाते हैं। खीर और पकवान बनाकर बेल पकड़कर अपने पूर्वजों को याद करते हुए पानी में विसर्जित करते हैं। बेल के समान वंश वृद्धि की कामना के लिए यह परंपरा पीढ़ी दर पीढ़ी निभाई जा रही है।