150 साल बाद बाग प्रिंट में लौटी ‘नील’ की रौनक:गौहर महल में इंडिगो रंग से बने बाग प्रिंट के कपड़े बने आकर्षण का केंद्र
150 साल बाद बाग प्रिंट में लौटी ‘नील’ की रौनक:गौहर महल में इंडिगो रंग से बने बाग प्रिंट के कपड़े बने आकर्षण का केंद्र
भोपाल के गौहर महल में 11 से 20 अप्रैल तक चल रहे बाग महोत्सव में खूबसूरत इनोवेशंस देखने को मिल रहे हैं। नेचुरल रंगों से किए जाने वाले बाग प्रिंट में इस बार दो नए रंग जुड़ गए हैं। पहला है अकाव का रंग, जो लोहे की जंग पर हरड़ के ट्रीटमेंट से तैयार होता है। दूसरा रंग है इंडिगो का, जो बना है इंडिगो लीव्स के फरमेंटेशन और गुड़ व चूने के खास इम्पैक्ट से। इंडिगो रंग को तैयार करने की यह प्रक्रिया काफी पुरानी है, जिसे रिवाइव किया मास्टर क्राफ्टमैन उमर फारुक खत्री ने। उमर के पड़दादा बाग प्रिंट के जनक अली करीब 150 साल पहले तक बाग प्रिंट के कपड़ों में इंडिगो के पौधे से बने नीले रंग का इस्तेमाल करते थे। कहा जाता था कि यह उस समय लोगों को इतना अधिक पसंद आता था कि वह मार्केट में वह सबसे आखिर में आते थे और सबसे पहले बेचकर चले जाते थे। फिर धीरे धीरे लाल और काला रंग लोग पहनने लगे, तो इसका चलन कम हो गया। अब एक बार फिर मार्केट में इंडिगो पौधे की पत्ती से बने कलर के बाग प्रिंट कपड़ा मिल रहा है। 1 महीने में तैयार होता है रंग
मास्टर क्राफ्टमैन उमर ने बताया- बाग प्रिंट में इंडिगो रंग के इस्तेमाल पर मैं 2016 से काम कर रहा हूं। कई बार गलतियां हुईं। पिछले साल तक भी इस रंग में वैसा शेड और टोन पाना मुश्किल था। मगर, अब सफलता मिल गई है। इंडिगो नेचुरल कलर है। इसका पौधे की पत्ती को पानी में गला देते हैं। उसमें बाद में नील का रंग आ जाता है। उसकी प्रोसेस के लिए उसमें चूना डालना पड़ता है। फिर वह चूने के साथ पकता है। तब जाकर उससे डाई करते हैं। पत्ती भिगोने से लेकर तैयार करने में करीब 1 महीने का समय लता है। कपड़े को डाई करके सुखाया जाता है। वह धीरे धीरे नीला हो जाता है। हमारे पिताजी बताते हैं कि हमारे पड़दादा अली जी मार्केट में सबसे आखिर में आते थे और सबसे पहले कपड़ा बेचकर चले जाते थे। ऐसे आया आइडिया
करीब 150 साल पहले तक आदिवासी लुगड़ी-घाघरा का काम होता था। इंडिगो का काम इसलिए कम हो गया क्योंकि लोग लाल और काला ही पहनने लगे। 1960 में लाल कलर बंद हो गया। मुझे पिताजी ने कहानी सुनाई कि पड़दादा यह काम करते थे। यहीं से मुझे आइडिया आया कि मैं भी उस काम को जरूर करूं जो पूर्वजों ने किया है। साल 2016 से कोशिश में लगा हूं। अब धीरे-धीरे महारत हासिल हो रही है। इस प्रोडक्ट को लेकर पब्लिक का रिस्पांस भी अच्छा है। भोपाल में बाग प्रिंट को बहुत पसंद करते हैं। इंडिगो ही ज्यादा पंसद कर रहे हैं। इसलिए मार्केट से हटकर बाग के साथ इंडिगो बनाया है।
भोपाल के गौहर महल में 11 से 20 अप्रैल तक चल रहे बाग महोत्सव में खूबसूरत इनोवेशंस देखने को मिल रहे हैं। नेचुरल रंगों से किए जाने वाले बाग प्रिंट में इस बार दो नए रंग जुड़ गए हैं। पहला है अकाव का रंग, जो लोहे की जंग पर हरड़ के ट्रीटमेंट से तैयार होता है। दूसरा रंग है इंडिगो का, जो बना है इंडिगो लीव्स के फरमेंटेशन और गुड़ व चूने के खास इम्पैक्ट से। इंडिगो रंग को तैयार करने की यह प्रक्रिया काफी पुरानी है, जिसे रिवाइव किया मास्टर क्राफ्टमैन उमर फारुक खत्री ने। उमर के पड़दादा बाग प्रिंट के जनक अली करीब 150 साल पहले तक बाग प्रिंट के कपड़ों में इंडिगो के पौधे से बने नीले रंग का इस्तेमाल करते थे। कहा जाता था कि यह उस समय लोगों को इतना अधिक पसंद आता था कि वह मार्केट में वह सबसे आखिर में आते थे और सबसे पहले बेचकर चले जाते थे। फिर धीरे धीरे लाल और काला रंग लोग पहनने लगे, तो इसका चलन कम हो गया। अब एक बार फिर मार्केट में इंडिगो पौधे की पत्ती से बने कलर के बाग प्रिंट कपड़ा मिल रहा है। 1 महीने में तैयार होता है रंग
मास्टर क्राफ्टमैन उमर ने बताया- बाग प्रिंट में इंडिगो रंग के इस्तेमाल पर मैं 2016 से काम कर रहा हूं। कई बार गलतियां हुईं। पिछले साल तक भी इस रंग में वैसा शेड और टोन पाना मुश्किल था। मगर, अब सफलता मिल गई है। इंडिगो नेचुरल कलर है। इसका पौधे की पत्ती को पानी में गला देते हैं। उसमें बाद में नील का रंग आ जाता है। उसकी प्रोसेस के लिए उसमें चूना डालना पड़ता है। फिर वह चूने के साथ पकता है। तब जाकर उससे डाई करते हैं। पत्ती भिगोने से लेकर तैयार करने में करीब 1 महीने का समय लता है। कपड़े को डाई करके सुखाया जाता है। वह धीरे धीरे नीला हो जाता है। हमारे पिताजी बताते हैं कि हमारे पड़दादा अली जी मार्केट में सबसे आखिर में आते थे और सबसे पहले कपड़ा बेचकर चले जाते थे। ऐसे आया आइडिया
करीब 150 साल पहले तक आदिवासी लुगड़ी-घाघरा का काम होता था। इंडिगो का काम इसलिए कम हो गया क्योंकि लोग लाल और काला ही पहनने लगे। 1960 में लाल कलर बंद हो गया। मुझे पिताजी ने कहानी सुनाई कि पड़दादा यह काम करते थे। यहीं से मुझे आइडिया आया कि मैं भी उस काम को जरूर करूं जो पूर्वजों ने किया है। साल 2016 से कोशिश में लगा हूं। अब धीरे-धीरे महारत हासिल हो रही है। इस प्रोडक्ट को लेकर पब्लिक का रिस्पांस भी अच्छा है। भोपाल में बाग प्रिंट को बहुत पसंद करते हैं। इंडिगो ही ज्यादा पंसद कर रहे हैं। इसलिए मार्केट से हटकर बाग के साथ इंडिगो बनाया है।